मौर्य काल की कला और संस्कृति

यहां मिलेगी आपको मौर्य काल की कला और संस्कृति से जुड़ी हुई प्रत्येक जानकारी जिसमें UPSC LEVEL के नोट्स भी शामिल होंगे।

मौर्य काल की कला और संस्कृति
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मौर्य काल की कला और संस्कृति में निर्माण सामग्री के रूप में लकड़ी का स्थान पत्थर ने ले लिया जो भारतीय कला में एक महत्वपूर्ण संक्रमण काल का प्रतिनिधित्व करता है।

मौर्य काल की कला और संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया जाता है-

1.राजकीय कला

राजकीय कला के अंतर्गत वास्तु कला में नगर-नियोजन प्रणाली, मौर्य प्रासाद, स्तूप, गुफाओं एवं पाषाण स्तंभों आदि को सम्मिलित किया जाता है।

2.लोक कला

लोक कला के अंतर्गत परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर ग्राहिणी,बेस नगर की यक्षिणी, मनके, मिट्टी की मूर्तियां, तथा चमकीली पात्र परंपरा आदि को सम्मिलित किया जाता है।

चंद्रगुप्त का राजप्रासाद-

यह सभा भवन खंभों वाला हाल था। विभिन्न उत्खननों में यहां से कुल मिलाकर 40 पाषाण स्तंभ मिले हैं। इस सभा भवन में फर्श और छत लकड़ी के थे। भवन की लंबाई 140 फुट और चौड़ाई 120 फुट है। भवन के स्तंभ बलुआ पत्थर के बने हुए थे और उनमें चमकदार पाॅलिश की गई थी।

पाटलिपुत्र का नगर स्थापत्य-

पाटलिपुत्र सोन और गंगा नदी के संगम पर राजा उदायिन के द्वारा बसाया गया था। नगर के चारों ओर लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसके बीच बीच में तीर चलाने के लिए छिद्र बने हुए थे। दीवार के चारों ओर एक खाई थी जो 60 फुट गहरी और 600 फुट चौड़ी थी। नगर में आने जाने के लिए 64 द्वार थे। दीवारों पर बहुत से बुर्ज थे  जिनकी संख्या लगभग 570 थी।

स्तंभ-

मौर्य काल की कला और संस्कृति
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मौर्य कला के सर्वश्रेष्ठ नमूने अशोक कालीन स्तंभ हैं। इन स्तंभों में से अधिकांश पर बुद्ध के नियमों के प्रचार-प्रसार से संबंधित लेख या जनता के लिए अशोक के शासनादेश खुदवाए गए हैं।
इन स्तंभों की ऊंचाई 35 से 50 फीट है। सभी स्तंभ चमकदार, लंबे, सुडोल तथा एकाश्मक हैं, जिनके शीर्ष तराशे हुए हैं। यह स्तंभ नीचे से ऊपर की ओर पतले होते गए हैं।

इनको मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जा सकता है-
  • स्तंभ यष्टि
  • यष्टि के ऊपर स्थापित घंटाकृति
  • फलक/चौकी
  • स्तंभ के शीर्ष पर पशु-आकृतियां

यष्टि के ऊपर शीर्ष भाग का मुख्य अंश घंटा है, जो ईरानी स्तंभों के आधार के घंटों से मिलते जुलते हैं। भारतीय विद्वान इसे अवांग मुखी कमल कहते हैं।
इसके ऊपर गोल चौकी है। कुछ चौकियों पर चार पशु और चार छोटे चक्र अंकित हैं तथा कुछ पर हंस पंक्ति अंकित है। चौकी पर उकेरी हंसों की आकृतियों में यूनानी प्रभाव दिखाई देता है। चौकी पर सिंह, घोड़ा, हाथी तथा बैल और आसीन हैं। ये पशु आकृतियां खड़ी और बैठी दोनों मुद्राओं में प्राप्त होती हैं।
रामपुरवा में नटवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा है और लौरिया नंदनगढ़ का सिंह बैठा हुआ है।
सारनाथ के शीर्ष स्तंभ पर सिंह पीठ सजाए गए हैं। यह चार सिंह एक चक्र धारण किए हुए हैं। यह चक्र बुध द्वारा धर्म चक्र प्रवर्तन का प्रतीक है। मौर्य शिल्पियों के रूप विधान का इससे अनूठा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है।

इन स्तंभों में दो प्रकार के पत्थर प्रयुक्त हुए थे-

कुछ मथुरा के क्षेत्र से प्राप्त लाल चित्तीदार और सफेद बलुआ पत्थर थे, तो कुछ वाराणसी के निकट चुनार की पत्थर की खानों से प्राप्त पांडू (बादामी) रंग के बारीक रवेदार कठोर बलुआ पत्थर थे।
स्तंभ शीर्षौं में शैली की एकरूपता को देखकर यह प्रतीत होता है कि ये एक ही क्षेत्र के कारीगरों द्वारा निर्मित किए गए थे।

मौर्य कालीन और ईरानी स्तंभों में अंतर-

मौर्य कालीन और ईरानी स्तंभों में पर्याप्त अंतर देखने को मिलता है, जो इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
  • मौर्यकालीन स्तंभ एकाश्मक है। इसके उलट ईरानी स्तंभ मंडलाकार टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है।
  • मौर्यकालीन स्तंभ एकाश्मक है। इसके उलट ईरानी स्तंभ मंडलाकार टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है।
  • मौर्य स्तंभ बिना चौकी के आधार पर टिके हैं जबकि ईरानी स्तंभ चौकी पर।
  • ईरानी स्तंभ नालीदार है जबकि भारतीय स्तंभ सपाट है।
  • मौर्य स्तंभ स्वतंत्र रूप से खुले आकाश के नीचे खड़े हैं, जबकि ईरानी स्तंभों को भवनों में स्थापित किया गया है।
  • मौर्य स्तंभों के शीर्ष पर पशु आकृतियां है जबकि ईरानी स्तंभों पर मनुष्य आकृतियां।
  • मौर्य स्तंभ नीचे से ऊपर तक पतले होते चले गए हैं जबकि ईरानी स्तंभों की चौड़ाई नीचे से ऊपर एक समान है।

सारनाथ सिंह शीर्ष –

सारनाथ से प्राप्त मौर्य स्तंभ शीर्ष जोकि आमतौर से सिंह शीर्ष के रूप में जाना जाता है, मौर्य कालीन मूर्तिकला का बेहतरीन उदाहरण है। यह सारनाथ में बुद्ध द्वारा प्रथम धर्म उपदेश या धर्म चक्र प्रवर्तन की ऐतिहासिक घटना की स्मृति में अशोक द्वारा बनवाया गया था।
चार राजसी सिंह की आकृतियां जो एक-दूसरे से पीठ सटाए बैठे हुए हैं और इन सिंहो के मस्तक पर एक मुकुट तत्व, धर्म चक्र, एक बड़ा पहिया भी इस स्तंभ का एक हिस्सा था हालांकि, हुई है भैया अब टूटी हुई हालत में पड़ा हुआ है।
चक्र और आवांगमुखी कमल को छोड़कर शीर्ष को भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया है।
मूर्तियों की स्थिति पर चमकदार पाॅलिश है, जो मौर्य कला की महत्वपूर्ण विशेषता है।

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अशोक चक्र-

स्तंभ के गोल अंग या फलक पर चार, छोटे धर्मचक्र चारों दिशाओं में उत्कीर्ण हैं। जिनमें 24 तीलियां हैं तथा एक बैल, एक घोड़ा, एक हाथी और एक शेर की आकृति प्रत्येक चक्र के बीच में बारीकी से उत्कीर्ण है। चक्र का अंकन संपूर्ण बौद्ध कला में महत्वपूर्ण हो जाता है।

स्तूप-

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मूल रूप से बुद्ध की मृत्यु के पश्चात 9 स्तूपों का निर्माण किया गया। जिनमें से आठ उनके अवशेषों पर बनवाए गए थे और नौवें में वह बर्तन था, जिसमें मूल रूप से अवशेषों को रखा गया था। बुद्ध के अवशेषों पर स्तूपों का निर्माण राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, रामग्राम, कुशीनगर, पावा आदि स्थलों पर किया गया।
स्तूप का अर्थ-
स्तूप प्रारंभ में मिट्टी के थूहे होते थे। पालि ग्रंथों में इसे थूप कहा गया है। जो समय के साथ स्तूप हो गया। इसके भीतरी भाग अधजली ईटों और बाहरी भाग पक्की ईंटों से बना है। इसके ऊपर प्लास्टर की मोटी परत चढ़ाई गई है।सांची का महान स्तूप अशोक के समय में पक्की ईंटों से बनाया गया था। कालांतर में इसकी मरम्मत सातवाहन काल में  की गई।
स्तूप आकार में अंडाकार अथवा उल्टे कटोरे की तरह बना होता है। इसके शीर्ष पर छत्र और उसके चारों ओर से घेरे हर्मिका होती है। प्रारंभ में छत्रों की संख्या कम थी, लेकिन बाद में इनकी संख्या बढ़ गई और इसे छत्रावली कहा जाने लगा।
स्तूप के ऊपर बने तीन छत्र बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों का प्रतिनिधित्व करते हैं, अर्थात्  बुद्ध, धम्म और संघ।
इसके अतिरिक्त प्रदक्षिणा पथ के साथ तोरण द्वार को जोड़ा गया। इस प्रकार स्तूप वास्तुकला में विस्तारण के साथ वहां के वास्तुकारों और मूर्तिकारों के पास विस्तार के लिए योजना बनाने और उत्कीर्ण करने हेतु पर्याप्त स्थान था।
महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाएं समय के साथ सभी बौद्ध स्मारकों एक महत्वपूर्ण विषय बन गए और इन्हें जातक कथाएं कहा जाने लगा।

बुद्ध के जीवन से संबंधित मुख्य घटनाएं जो प्राय उत्कीर्ण की गई वे हैं-

  • बुद्ध का जन्म
  • महाभिनिष्क्रमण (गृह त्याग)
  • ज्ञान प्राप्ति
  • महापरिनिर्वाण(मृत्यु)।

मौर्य कला की गुफाएं-

मौर्य काल में गुफाओं को पर्वतों को काटकर बनाया जाता था।
अशोक और उसके पौत्र दशरथ के समय बिहार में गया के समीप बाराबर तथा नागार्जुनी की पहाड़ियों को काटकर आजीवक संप्रदाय के लोगों को दान दिया गया था।
बाराबर की गुफाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार है-

सुदामा-गुफा
कर्ण-चौपड़ गुफा
लोमस ऋषि गुफा
विश्व-झोपड़ी गुफा।
नागार्जुनी पहाड़ी पर स्थित गुफाएं-
गोपिका गुफा
वहियक गुफा
वडथिक गुफा।
प्रवेश द्वार के ऊपर एक खिड़की बनी हुई है जिसे चेते कहा जाता है। वास्तुशिल्पिय दृष्टि से इसका महत्व यह है कि ये भारत में ज्ञात शैलकृत गुफाओं के प्रारंभिक उदाहरण हैं।

मूर्तिकला-

स्थानीय मूर्तिकारों के कार्य मौर्यकालीन लोक कला का प्रदर्शन करते हैं। इनमें वे मूर्ति शिल्प शामिल है जिनको संभवतः सम्राट द्वारा संरक्षण नहीं दिया गया था।
यक्ष और यक्षिणी की महाकाय मूर्तियां पटना, विदिशा और मथुरा जैसे स्थानों से प्राप्त हुई हैं।
मनके-
इस कल में कौशाम्बी, वैशाली, चंपा आदि के उत्खनन से मनके भी प्राप्त हुए हैं। ये मनके गोमेद, रेखांकित करकेतन, कार्नेलियन तथा मिट्टी के बने हुए हैं। इन मनकों से तत्कालीन समाज में लोगों की रुचि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
मृदभांड-
मौर्य काल से जुड़े मृदभांडो में पात्रों के कई प्रकार प्राप्त होते हैं। लेकिन सबसे अधिक विकसित तकनीक मिट्टी के बर्तनों का एक विशेष प्रकार है, जिसे उत्तरी काली चमकीली पात्र परंपरा के रूप में जाना जाता है।
इस परंपरा से निर्मित बर्तन अत्यंत पतले और हल्के होते थे। इसके लिए प्रायः जलोढ़ मिट्टी का प्रयोग किया जाता था। इसे इसकी विशिष्ट चमक और आभा के कारण अन्य चमकीले या ग्रेफाइड लिपित लाल बर्तनों से अलग किया जा सकता है।

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